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कविता

पराजित भाषा-विमर्श

बसंत त्रिपाठी


हजार आँखों से देखी गई हिंसा
और एक बेचारी जीभ
अब वह स्वाद से पीछा छुड़ाए
तो कहे कुछ
और कहे भी कैसे
जो भाषा उसे आती है
बुद्धि-विलासियों के लिए उसका मूल्य
दो कौड़ी भी नहीं

उजली कल्पना के पाथर पंखों की पीठ पर सवार
शब्दों को सितार की तरह बजाती
च्युंगम की तरह चबाती
बेचारी पराजित जीभ
जब निकलती है सड़कों पर कुछ कहने
कितनी नंगी जान पड़ती है

हमारे सुचिंतित विचारवान
चिंता के ढोंग में रंग बदलते सुधीजन
जीभ की विवशता नहीं देखते
देखते बस उसका अप्रभावी होना

धन्य है प्रभो!
यह किसी पराजित भाषा में ही संभव है
कि बोलने वाले अपराधी
और न सुनने वाले बाइज्जत बरी!

 


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